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धर्म/अध्यात्मिकता, अंधविश्वास और राजनीति!*

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 _रमेश ठाकुर_

_रामनगर-नरकटियागंज, प०चंपारण(बिहार)07-07-2024_ 


"जब हम भारतीय समाज की बात करते हैं, तो धर्म/अध्यात्मिकता के साथ अंधविश्वास भी जुड़ जाता है। जिस पर राजनीतिक रोटियां भी खूब सेंकने के काम आती है। वास्तव में समाधान कोई नहीं चाहता है। समाज को शिक्षित कर ऐसे अंधविश्वास के प्रति सचेत रहने और समाज को जागरूक करने पर कोई भी राजनीतिक पार्टी या राजनीतिक और प्रशासनिक इकाइयां तैयार नहीं है। यहां तक कि विचार भी नहीं किया जाता है। किसी के पास इसके लिए समय ही नहीं है। केवल हाथरस जैसे दर्दनाक हादसे पर मात्र एक सप्ताह तक सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए रहते है और फिर पुनः राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों को इतने बडे लोकतांत्रिक देश में एक दूसरा मुद्दा मिल ही जाता है।

यह एक बहुत व्यापक विषय है, जिस पर बात की जा सकती है। और इस पर बात करना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि भारत जैसे देश में लोग धर्म और अंधविश्वास के नाम पर आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। अध्यात्मिकता और अंधविश्वास का अध्ययन सालों से होता आ रहा है। हम सभी ने इसके बारे में कहानियाँ सुनी हैं। भले ही ये दोनों अलग-अलग विषय हों, लेकिन ये परंपराओं के आधार पर जुड़े हुए हैं। हम नहीं जानते कि ये कहानियाँ सच हैं या नहीं, लेकिन हम मानते हैं कि ये कहानियाँ सच्चाई से या किसी की कल्पना की गहराई से कही गई हैं। जहाँ तक अध्यात्मिकता/धर्म का सवाल है, धर्म एक दृढ़ आस्तिक के लिए तथा दूसरी त्वचा की तरह काम करता है। आखिरकार समाज कैसे काम करता है। इसे समझने की बात आती है तो इस समाजशास्त्रीय मामले का अध्ययन एक बेहतरीन विषय है।

 आज भी बड़ी संख्या में भारतीय साक्षर और शिक्षित हो रहें हैं लेकिन अध्यात्मिकता और अंधविश्वास में अन्तर नहीं कर पा रहे हैं। 



  भारत में भोले-भाले लोगों की संख्या ज्यादा है कम पढ़े-लिखे है बौद्धिक ज्ञान न के बराबर है और सरकारों द्वारा उनको अच्छी सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जा रही है जिसके कारण वह हमेशा परेशान रहते हैं उनकी समस्याएं दिन-प्रतिदिन जटिल होती जाती है रोगों के निदान के लिए जब वह अस्पतालों में जाते हैं तो महंगे चिकित्सीय प्रणाली के कारण वह चमत्कारी बाबाओं और साधुओं के अंधविश्वास के जाल में फंस जाते हैं और हाथरस जैसे घटना के शिकार हो जाते हैं।

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि जब समाज में शिक्षा का अभाव था तब वेद, पुराण, ब्रह्मा ग्रंथ सहित बड़े से बड़े धार्मिक ग्रंथो, आध्यात्मिक ग्रंथो और समाज को दिशा-निर्देशित तथा समाज में न्याय व्यवस्था स्थापित करने के लिए कुछ विशेष ग्रंथो की रचना की गई कुछ ग्रंथ तो आज के समय में एक निंदा का विषय माना जाता है जैसे- मनुस्मृति।

  उस समय के समाज में बड़े से बड़े समागम हुआ करते थे। बड़ा से बड़ा धार्मिक जलसा हुआ करत था लेकिन ऐसी दर्दनाक मौत या हादसा नहीं हुआ करता था यह अन्य धर्म पर भी लागू होता है अन्य धर्म के यहां भी इतनी अच्छी व्यवस्थाएं रहती थी कि वहां भी लोग हताहत नहीं होते थे। लेकिन आखिर अब ऐसा क्या हो गया कि समाज जितना ही शिक्षित होता चला जा रहा है हम उतना ही संकिर्ण होते चले जा रहे हैं। समाज में अशिक्षा का परिचय दे रहे हैं और अंधविश्वास तथा हादसों के शिकार होते चले जा रहे हैं। इसका फायदा उठाने में राजनीतिक पार्टियां भी पीछे नहीं है। जबकि राजनीतिज्ञों को बड़ी सोच समझकर इन संवेदनशील मुद्दे पर अपना विचार व्यक्त करना चाहिए। हाथरस जैसे हादसे पर बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अब तक कोई भी राजनीतिज्ञ एक अच्छा बयान नहीं दिया है और नहीं किसी भी राजनीतिज्ञ ने उस पाखंडी बाबा या चमत्कारी बाबा को दोषी नहीं ठहराया है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है। यद्यपि की इस पूरे कांड में प्रशासनिक असफलता भी दिखाई दे रहा है।"

उक्त बातें सुनील कुमार शुक्ल, (पूर्व सांसद प्रत्याशी 65 - कुशीनगर लोकसभा क्षेत्र,अधिवक्ता-इलाहाबाद उच्च न्यायालय,प्रयागराज) ने कही।

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