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*महाकुंभ और संत परंपरा: संस्कृति पर आधुनिकता की चोट-रवींद्र सिंह (मंजू सर),मैहर की कलम से*

_रमेश ठाकुर - पश्चिमी चंपारण बिहार_

_दिनांक:- 23-01-2024_


महाकुंभ, जो भारतीय संस्कृति, धर्म और आस्था का अद्वितीय संगम है, आज अपनी परंपराओं और मूल्यों पर आधुनिक मीडिया और सोशल मीडिया की चकाचौंध में सवालिया निशान झेल रहा है। यह मेला, जो गंगा स्नान, तीर्थ दर्शन और संतों के आशीर्वाद से पवित्र होता है, अब ट्रोलिंग, व्यूज और विवादों का अखाड़ा बनता जा रहा है।


कुंभ में हर संत शास्त्रों का ज्ञाता नहीं होता। कई संत ऐसे होते हैं, जिनके पास न तो अक्षर ज्ञान होता है, न ही वे तर्क-वितर्क में सक्षम होते हैं। उनका जीवन केवल मंदिरों की सेवा और अपने आराध्य देव की भक्ति में समर्पित होता है। लेकिन आज इन सहज और सरल संतों को माइक और कैमरों के सामने लाकर उन्हें अज्ञानी साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं।


कुंभ में आए युवा साधु, जो अभी ज्ञान अर्जित कर रहे थे, उनके पीछे भीड़ और मीडिया तब तक लगी रही, जब तक उनका आत्मविश्वास खत्म नहीं हुआ। इस तरह की घटनाएं केवल संत परंपरा के प्रति लोगों के विश्वास को तोड़ने का काम करती हैं।


एक और घटना में, माला बेचने वाली एक साधारण लड़की को मीडिया ने जबरदस्ती सुर्खियों में लाकर, उसका जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया। उसके वीडियो फूहड़ कैप्शन के साथ चलाए गए और धमकियां दी गईं, जिससे वह भयभीत होकर अपने गांव लौटने को मजबूर हो गई।


कुंभ मेले की पहचान गंगा स्नान, साधु-संतों के आशीर्वाद और धार्मिक अनुष्ठानों से है। लेकिन आज के व्यूज और धंधे की अंधी दौड़ में इसकी पवित्रता पर सवाल उठ रहे हैं। जो साधु मीडिया से दूर रहते हैं, उन्हें ढोंगी कहा जा रहा है। जो सहजता से उत्तर देते हैं, उन्हें विवादों में घसीटा जा रहा है।


कुंभ केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, यह भारत की आस्था, परंपरा और वैराग्य का प्रतीक है। इसे विवादों और व्यावसायिक लाभ की होड़ से बचाना आवश्यक है। इसके लिए समाज को जागरूक होकर इस तरह की गतिविधियों को रोकने की दिशा में कदम उठाने होंगे।

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